brihaspativar vrat katha aarti
प्राचीन समय की बात है। भारतवर्ष में एक राजा राज्य करता था वह बहुत प्रतापी और दानी था वह नित्य प्रतिदिन मंदिर में दर्शन करने जाता और ब्राह्मण और गुरु की सेवा किया करता था। उसके दरवाजे से कोई भी निराश होकर नहीं लौटता।
परंतु यह सब बातें उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती रानी ना तो पूजा ही करती ना किसी को एक दमड़ी दान में देती थी। तथा राज्य को भी ऐसा करने से मना किया करती थी। एक समय की बात है। राजा शिकार खेलने वन में गए हुए थे। उस समय घर पर रानी और दासी थी। तब भगवान बृहस्पति देव साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए भिक्षा मांगने पर रानी ने साधु महाराज से कहा। हे साधु महाराज मैं इस दान पुण्य से तंग आ गई हूं। मेरे तो घर का कार्य ही समाप्त नहीं होता। अब आप ऐसी कृपा करें जिससे सब धन नष्ट हो जाए और मैं आराम से रह सकूं।
साधु बोले हे देवी तुम तो बड़ी विचित्र हो। संतान और धन से तो कोई भी दुख नहीं होता सभी इसको चाहते हैं। पापी पुत्र धन की इच्छा करता है। अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो भूखी मनुष्य को भोजन कराओ, प्याव लगाओ, ब्राह्मणों को दान दो, जिसे तुम्हारे कुल का नाम परलोक में सार्थक हो।
और तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो। विष्णु चालीसा
परंतु यह बातें सुनकर रानी खुश ना हुई वह बोली। हे साधु महाराज मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं जिसको रखना उठाने में मेरा सारा समय नष्ट हो जावे तब साधु महाराज बोल हे देवी तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो ऐसा ही होगा। मैं बताता हूं वैसा ही करना बृहस्पतिवार के दिन घर को गोबर से लीपना, अपने केशो को धोना, राजा से कहना हजामत बनबाए, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़े धोबी के यहां धुलने डालना इस प्रकार सात बृहस्पति करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जाएगा।
ऐसा कहकर साधु महाराज वहां से अंतर ध्यान हो गए। रानी ने साधु के कहने अनुसार ही किया तीन ही बृहस्पति बीते थे। की रानी का समस्त धन नष्ट हो गया अब परिवार दोनों समय भोजन के लिए तरसने लगा तथा सांसारिक भोगों से दुखी रहने लगा। तब राजा रानी से कहने लगा। हे रानी तुम यहां रहो मैं दूसरे देश जाता हूं क्योंकि यहां सभी मनुष्य मुझे जानते इसलिए कोई काम नहीं कर सकता।
देश चोरी प्रदेश भीख बराबर है। ऐसा कहकर राजा प्रदेश चला गया वहां जंगल में जाता और लकड़ी काट कर लाता इस प्रकार अपना जीवन कठिनाई से व्यतीत करने लगा। उधर राजा के घर में रानी और दासी दुखी रहने लगी किसी दिन भोजन मिलता तो किसी दिन जल पीकर ही रह जाती। एक समय रानी और दासी को सात राते बिना भोजन के व्यतीत हो गए। तब रानी ने दासी से कहा। हे दासी पास ही नगरमें मेरी बहन रहती है। तू उसके पास जा और पांच पांच सेर बेझर मांग ला। जिससे कुछ समय के लिए हमारा गुजर हो जाए।
रानी की आज्ञा पाकर दासी रानी की बहन की घर की ओर चल दी। पहुंच कर कहने लगी। हे रानी मुझे तुम्हारी बहन ने भेजा है।
मेरे लिएपांच सेर बेझर दे दो। परंतु रानी ने कोई उत्तर नहीं दिया। क्योंकि उस समय वह बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। दासी ने अनेक बार कहा परंतु जब कोई उत्तर नहीं मिला तो वह क्रोधित हुई। और रानी के पास वापस आ गई। रानी के पास आकर बोली है रानी तुम्हारी बहन बहुत अभिमानी है।
वह छोटा मनुष्य से बात नहीं करती मैंने कई बार कहा परंतु उसने कोई उत्तर नहीं दिया। रानी बोली हे दासी इसमें उसका कोई दोष नहीं जब बुरे दिन आता है तो कोई सहारा नहीं देता। अच्छे बुरे का पता तो विपति में ही लगता है। जो ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा।
उधर रानी की बहन ने सोचा मेरी बहन की दासी आई थी। परंतु मैं उससे बोली नहीं। इससे वह दुखी हुई होगी यह सोचकर रानी की बहन विष्णु भगवान का पूजन और कथा समाप्त कर बहन की घर की ओर चल दी। पहुंच कर कहने लगी हे बहन तुम्हारी दासी आई थी परंतु जब तक कथा होती है ना उठाते हैं ना बोलते कहो दासी क्यों गई थी।
रानी अपनी बहन से बोली। हे बहन ऐसे तुमसे कोई बात छिपी नहीं है। मेरे घर में अनाज नहीं था। इसीलिए मैंने दासी को तुम्हारे घर अनाज लेने भेजा था। रानी की बहन बोली बहन भगवान बृहस्पति सबकी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। देखो शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो। यह सुनकर दासी घर के भीतर गई तो उसे एक घड़ा जो से भरा मिला।
यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और बाहर आकर रानी को बताया। दासी अपनी रानी से बोली हे रानी हमको भोजन नहीं मिलता है तो हम रोज ही व्रत करते हैं। अगर इसे व्रत की विधि पूछ ली जाए तो हम भी किया करेंगे। तब रानी ने अपनी बहन से व्रत के बारे में पूछा। हे बहन बृहस्पतिवार का व्रत कैसे करना चाहिए।
रानी की बहन बोली बहन बृहस्पतिवार के दिन गुड़ और चने की दाल को जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो। फिर कथा करो भगवान तुम्हारी सब मनोकामना को पूर्ण करेंगे। ऐसा कहकर रानी की बहन अपने घर को वापस लौट आई। रानी और दासी ने निश्चय किया बृहस्पतिवार का का व्रत आएगा तो पूजा जरूर करेंगे। सात रोज बाद जब बृहस्पतिवार का दिन आया तो उन्होंने व्रत रखा और घुड़साल में जाकर गुड़ चना बीन लाई।
केले के जड़ में विष्णु भगवान का पूजन किया। अब भोजन पीला कहां से आवे बेचारी बड़ी दुखी हुई परंतु उन्होंने व्रत किया था। इसलिए गुरु भगवान प्रसन्न थे।
एक साधारण व्यक्ति के रूप में, दो थालो में सुंदर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले। हे दास यह भजन तुम्हारे और तुम्हारी रानी के तुम दोनों ग्रहण करना। दासी भोजन पाकर बड़ी प्रसन्न हुई परंतु रानी को इस विषय में कुछ पता नहीं था। दासी ने रानी से कहा चलो भोजन कर लो। रानी बोली तू क्यों व्यर्थ में मेरी हंसी उड़ाती है। दासी बोली एक महात्मा भोजन दे गए है। रानी बोली यह भोजन तेरे लिए है तू ही खा। दासी बोली महात्मा हम दोनों के लिए दो थालो में भोजन दें गए है। इसलिए हम तुम भोजन साथ-साथ करेंगे। इस प्रकार रानी और दासी ने गुरु भगवान को नमस्कार करके भोजन प्रारंभ किया।
अब वह प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत रखने लगी एवं पूजन करने लगी। भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन हो गया। परंतु रानी फिर उसी प्रकार का आलस्य करने लगी। तब दासी बोली देखो रानी तुम पहले इसी प्रकार का अलसी करती थी। तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था। जिसके कारण समस्त धन नष्ट हो गया था। बड़ी मुसीबत के बाद हमने यह धन पाए इसलिए हमें दान पुण्य करना चाहिए। भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआं ताला बावड़ी आदि का निर्माण करो, मंदिर पाठशाला बनवाओ। ताकि तुम्हारे कुल का यश बढे। तब रानी ने ऐसे ही कर्म करने आरंभ किया तो उसका काफी यश फैलने लग गया।
एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगी न जाने राजा किस प्रकार होंगे उनकी कोई खबर नहीं भगवान बृहस्पति देव से प्रार्थना की। हे प्रभु राजा जल्दी ही लौट आए। उधर प्रदेश में राजा दुखी रहने लगा। वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी काटकर कर लाता और शहर में उसे बेचकर अपना जीवन कठिनाई से व्यतीत करने लगा। एक दिन राजा जंगल में बैठा अपनी पुरानी बातों को याद करके रोने लगा। तब भगवान बृहस्पतिदेव साधु का रूप धारण करके लकड़हारे के पास आकर पूछने लगे तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंतन में बैठे हो मुझे बताओ मैं सुनना चाहता हूं।
यह सुनकर राजा के नेत्रों में जल भर आया साधु की बना करके बोला। हे प्रभु आप सब कुछ जानने वाले हो और साधु को अपनी संपूर्ण कहानी बता दी।
साधु स्वभाव से ही दयालु होते हैं। साधु ने राजा से कहा। हे राजा तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पति देव के प्रति अपराध किया था।
जिस कारण तुम्हारी यह दशा हुई।
अब तुम किसी बात की चिंता मत करो भगवान तुम्हें पहले से अधिक धनवान करेगा। देखो तुम्हारी पत्नी ने भी बृहस्पतिवार का व्रत प्रारंभ कर दिया। अब तुम भी मेरा कहां मानकर बृहस्पतिवार का व्रत करो चने के दाल व गुड जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो। फिर कथा कहो और सुनो भगवान तेरी सब मनोकामनाओं को पूर्ण करेंगे। साधु की बात सुनकर राजा बोला। हे प्रभु मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलने की भोजन करने के उपरांत कुछ बचा सकूं। मेने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है।
मेरे पास तो कोई साधन नहीं जिससे उसकी खबर मंगा सकूं। फिर कौन सी कहानी कहो मुझे कुछ भी पता नहीं साधु ने कहा। हे राजन तुम किसी बात की चिंता मत करो पहले की तरह लकड़ी लेकर शहर में जाओ तुम्हें रोज से दुगना धन प्राप्त होगा। जिससे तुम भलीभांति भोजन भी कर लोगे तथा पूजन का सामान भी आ जाएगा। बृहस्पतिवार की कथा इस प्रकार है
बृहस्पतिवार की कथा
प्राचीन काल में एक बहुत ही निर्धन ब्राह्मण रहता था। उसकी कोई संतान नहीं थी। वह नित्य पूजा पाठ करता परंतु उसकी स्त्री बहुत मालीनता के साथ रहती थी। वह ना तो किसी देवता का पूजन ही करती और ना ही कोई अन्य काम। इस कारण ब्राह्मण देवता बड़े दुखी रहते बहुत कुछ करते परंतु कोई परिणाम ना निकला।
एक समय ब्राह्मण की स्त्री भगवान की कृपा से गर्भवती हो गयी। और दसवे महीने में एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। कन्या पिता के घर में बड़ी होने लगी। बृहस्पतिवार का व्रत करने लग गई। वह पूजा पाठ को समाप्त कर अपने स्कूल को जाती तो मुट्ठी में जो भर के ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। लौटते समय वही जो स्वर्ण के हो जाते तो वह उन्हें बीनकर अपने घर ले आती।
बालिका एक दिन धूप में सोने के जो को फाटक कर साफ कर रही तभी उसकी मां ने देखा और कहा।बेटी सोने की जो कोफटकने के लिए सोने का ही सुप होना चाहिए।
दूसरे दिन गुरुवार था कन्या ने व्रत रखा और गुरु भगवान् से प्रार्थना की हे प्रभु यदि मैं आपकी पूजा सच्चे मन से की हो तो मेरे लिए सोने का सुप दे दो। बृहस्पति देव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली रोजाना की तरह कन्या जो फैलती हुई जाने लग गई।
जब वह लौटकर जो बीन रही थी तब उसे रास्ते में सोने का सुप मिला उसे लेकर वह घर आ गई। और उसमें जो साफ करने लगी। परंतु उसकी मां का वही ढंग रहा। एक दिन की बात है। कन्या सोने के सुप में जो साफ कर रही थी। उसी समय शहर का राजपुत्र वहा से होकर निकला और कन्या के रूप और कार्य को देखकर मोहित हो गया।
राजकुमार राजमहल जाकर अन्य जल त्याग कर उदास लेट गया। राजा को जब इस बात का पता लगा तो अपने प्रधानमंत्री के साथ अपने पुत्र के समीप पहुंच कर कहने लगे। हे पुत्र तुम्हें किस का दुख है। किसी ने तुम्हारा अपमान किया है। पुत्र ने कहा पिताजी किसी ने मेरा अपमान नहीं किया। आपकी कृपा से मुझे किसी बात की कोई कमी नहीं। परंतु मैं उसे लड़की के साथ विवाह करना चाहता हु। जो सोने केसुप में जो साफ कर रही थी। पिता ने पुत्र की इच्छा सुनी तो अपने प्रधानमंत्री से कहा। कि उसे लड़की का पता लगाओ जो सोने के सुप में जो साफ करती है।
तब मंत्रीगण ब्राह्मण के घर गए और राजकुमार की इच्छा ब्राह्मण से बताया। फिर ब्राह्मण अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार से करने के लिए तैयार हो गया। इस प्रकार ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ धूमधाम से हो गया।
कन्या के घर से जाते ही ब्राह्मण देवता घर में गरीबी का निवास हो गया।
एक दिन पिता अपनी पुत्री से मिलने पहुंचे बेटी ने पिता की दुखी अवस्था को देखा तो मां का हाल पूछा ब्राह्मण ने सभी हाल कन्या से कह सुनाया।
तब कन्या ने बहुत धन देकर अपने पिता को विदा किया। लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राह्मण फिर अपनी बेटी के घर पंहुचा।
तब पुत्री बोली है पिताजी आप माता जी को यहां लिवा लाओ जिससे में उनको वह विधि बता दूंगी जिससे गरीबी दूर हो जाये।
अब ब्राह्मण अपनी स्त्री के साथ लेकर अपनी पुत्री के घर पंहुचा तो पुत्री मां को समझने लगी मां तुम प्रातःकाल उठकर स्नान आदि करके विष्णु भगवान का पूजन करो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी।
परंतु उसकी मां ने एक बात नहीं मानी और प्रातः काल उठकर अपनी पुत्री के बच्चों का जूठन खा लिया। तब उसकी पुत्री को बहुत गुस्साआया।
उसने एक रात अपनी एक कोठरी से सारा सामान बाहर निकाला और अपनी मां को उसमे बंद कर दिया। प्रातःउसे निकाला स्नान आदि कराके पूजा पाठ कराया। तो उसकी मां की बुद्धि ठीक हो अब प्रत्येक बृहस्पतिवार का व्रत करने लगी इस व्रत के प्रभाव से इस लोक के सभी सुख भोग कर स्वर्ग को प्राप्त हुई। ब्राह्मण देवता भी इस लोक के सभी सुख भोगकर बैकुंठ धाम को प्राप्त हुए। इस प्रकार कथा कह कर साधु महाराज वह से अन्तर्ध्यान हो गए
धीरे-धीरे इस समय व्यतीत होने लगा फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया
उसे दिन अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक धन प्राप्त हुआ। जिससे राजा ने गुड़ चना लाकर बृहस्पतिवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी कलेश दूर हो गए।
परंतु जब अगला बृहस्पतिवार आया तो व्रत करना ही भूल गया। इस कारण भगवान बृहस्पति नाराज हो गए। उसी दिन उस नगर के राजा के यहां विशाल यज्ञ का आयोजन था। राजा ने समस्त नगर में घोषणा करवा दी कोई मनुष्य भोजन न बनाए। नहीं आग जलाएं समस्त जनता मेरे यहां आकर भोजन करें। जो इस आज्ञा का नहीं मानेगा उसे फांसी की सजा दी जाएगी।
ऐसी घोषणा संपूर्ण संपूर्ण नगर में करवा दी गई। सभी लोग भोजन करने गए परंतु लकराहरा कुछ देर में पंहुचा। इसलिए राजा उसे अपने साथ महल में ले गए और भोजन कर रहे थे। तो रानी की दृष्टि खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका हार लटका हुआ था। वह हार रानी को वहां दिखाई ना दिया। रानी ने निश्चय किया मेरा हार इसे मनुष्य ने चुरा लिया है। तत्काल सेनिको को बुलवाकर उसे जेल खाने में डलवा दिया।
लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन पूर्व जन्म के कौन से कर्म है। कि मुझे इतने दुख प्राप्त हुए। और उसी साधु को याद करने लगा जो जंगल में मिला था।
तत्काल गुरु भगवान् साधु का रूप धारण करके प्रकट हो गए। गुरु भगवान् ने राजा से कहा अरे मूर्ख तूने बृहस्पतिवार की कथा नहीं कही जिस कारण तुझे इतना दुख प्राप्त हुआ है। अब किसी बात की चिंता मत कर बृहस्पतिवार के दिन जेल खाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे।उसी से बृहस्पतिवार का पूजन करना तेरे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे। अगले बृहस्पतिवार को उसे जेल के द्वार पर चार पैसे पड़े मिले राजा ने इन पेसो से पूजा की और प्रसाद बांटा।
तब रात्रि में बृहस्पति देव ने उस नगर के राजा के स्वप्न में कहा। हे राजन तुमने जिस आदमी को जेल खाने बंद किया है। वह राजा है। निर्दोष है। उसे छोड़ देना। रानी का हार उसी खुटी पर लटका है। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा राज्य नष्ट कर दूंगा।
राजा प्रातः काल उठा और खूंटी पर हर देखकर लकरहारे को बुलाकर क्षमामांगी। सुंदर वस्त्र आभूषण उसे अपने नगर को विदा कर दिया।
गुरुदेव की आज्ञा अनुसार राजा अपने नगर को चल दिया। राजा जब नगर के निकट पहुंचा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि नगर में पहले से अधिक तालाब, कुआ और धर्मशालाएं बन चुके थे। राजा ने पूछा यह सब किसका है तो नगर के सभी लोग कहने लगे। यह रानी और दासी के है। तब राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। जब रानी ने यह खबर सुनी की राजा आ रहे है तब दासी से कहा। हे दासी देख राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़कर थे।
अब वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट ना जाए। इसलिए तू दरवाजे पर खड़ी हो जा। रानी के कहने अनुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई।
और जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ लिवा लाई। फिर राजा ने क्रोध से अपनी तलवार निकाली और पूछने लगे बताओ यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ।
तब रानी ने कहा। हे स्वामी यह धन तो हमें भगवान बृहस्पति की कृपा से प्राप्त हुआ है। राजा ने निश्चय के सात रोज बाद तो सभी मनुष्य बृहस्पतिदेव का पूजन करते है। परन्तु मैं रोजाना व्रत किया करूंगा दिन में तीन बार कहानी कहूंगा। अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कहानी कहता।
एक रोज राजा विचार करने लगा चलो अपनी बहन के यहांहो आए। इस तरह निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के घर की ओर चल दिया। मार्ग में उसे कुछ आदमी एक मुर्दे को ले जाते हुए दिख गए। राजा उन्हें रोक करके बोलै अरे भैया मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो। कुछ लोग बोले हमारा आदमी मर गया इसे कथा की पड़ी है। परंतु कुछ लोग बोले अच्छा कहो हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे। राजा ने दाल निकाली कथा आधी हुई कि मुर्दा हिलने लगा कथा समाप्त होते ही मनुष्य राम राम करके खड़ा हो गया। राजा आगे बढ़ा तो उसे मार्ग में एक किसान हल चलाता मिल गया।
राजा बोला भैया तुम मेरी कथा सुन लो। आदमी कहने लगा जब तक तेरी कथा सुनुँगा तब तक चार हरैया जोत लूंगा। जा अपनी कथा किसी और को सुनना। इस प्रकार राजा आगे चल दिया राजा के हटते ही किसान के बेल पछाड़ खाकर गिर गए। और किसान के पेट में बहुत तेज का दर्द होने लगा।
इसी समय किसान की माँ वहां रोटी लेकर आई थी। उसने यह हाल देखा तो पुत्र से पूछा बेटे ने सभी हाल अपनी माँ से बताया। बुढ़िया दौड़करउसी घुड़सवार के पास गई और बोली में तेरी कथा सुनूंगी पर तू मेरे खेत पर चलकर ही कहना। राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही जिसको सुनते ही किसान के पेट का दर्द बंद हो गया और बैल भी खड़े हो गए।
राजा अपनी बहन के घर पहुंचा तो बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज प्रातः काल राजा जागा तो देखा कि सभी मनुष्य भोजन कर रहे है। राजा बोला बहन कोई ऐसा मनुष्य होजिसने भोजन न किया हो तो मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले। बहन बोली भैया यह देश तो ऐसा पहले लोग भोजन करते हैं बाद में अन्य काम। अगर कोई पड़ोस में होता है तो मैं देख आती हूं।
ऐसा कहकर वह देखने चली गई परंतु उसे कोई व्यक्ति ऐसा ना मिला जिसने भोजन न किया हो। फिर वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था । उसे मालूम हुआ कि उसने तीन रोज से भोजन नहीं किया है। तब रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिये कुम्हार से कहा । वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर वृहस्पतिवार की कथा कही । जिसको सुनकर कुम्हार का लड़का ठीक हो गया । अब तो राजा को प्रशंसा होने लगी।
एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, हे बहन । मैं अपने घर जाउंगा, तुम भी तैयार हो जाओ । राजा की बहन ने अपनी सास से पूछा तो सास बोली हां चली जा मगर अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई औलाद नहीं होती है । बहन ने अपने भाई से कहा, हे भइया । मैं तो चलूंगी मगर कोई बालक नहीं जायेगा । राजा बोलै जब कोई बालक ही नहीं जायेगा तो तुम जाकर क्या करोगी और बड़े दुखी मन से अपने नगर लोट आया । राजा ने अपनी रानी से सारी बात बताई और बिना भोजन किये वह शय्या पर लेट गया । रानी बोली, हे प्रभो । वृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान अवश्य देंगें । उसी रात वृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा । उठ, सभी सोच त्याग दे । तेरी रानी गर्भवती है । राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई । नवें महीन रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ । तब राजा बोला, हे रानी । स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती । जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना । रानी ने हां कर दी । जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई ।
तब रानी ने राजा की बहन से कहा घोडा चढ़कर तो नहीं आई गधा चढ़ी आई हो तो राजा की बहन बोली, भाभी । मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती ।
वृहस्पतिदेव सभी कामनाएं पूर्ण करते है । जो सदभावनापूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, वृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है, उनकी सदैव रक्षा करते है ।
जो संसार में सदभावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे हृदय से करते है, उनकी सभी मनकामनाएं वैसे ही पूर्ण होती है, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने वृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छाएं वृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की । अनजाने में भी वृहस्पतिदेव की उपेक्षा न करें । ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है । इसलिये सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये । हृदय से उनका मनन करते हुये जयकारा बोलना चाहिये ।
बृहस्पति देव की आरती
जय बृहस्पति देवा, ऊँ जय बृहस्पति देवा ।
छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा ॥
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी ।
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी ॥
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता ।
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता ॥
तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े ।
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्वार खड़े ॥
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी ।
पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी ॥
सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारी ।
विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी ॥
जो कोई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे ।
जेठानन्द आनन्दकर, सो निश्चय पावे ॥
ऊँ जय बृहस्पति देवा
Video Credit
Shemaroo Bhakti